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सर पे सूरज हो मगर साया न हो ऐसा न था | शाही शायरी
sar pe suraj ho magar saya na ho aisa na tha

ग़ज़ल

सर पे सूरज हो मगर साया न हो ऐसा न था

अता आबिदी

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सर पे सूरज हो मगर साया न हो ऐसा न था
पहले भी तन्हा था लेकिन इस क़दर तन्हा न था

वो तो ये कहिए ग़म-ए-दौराँ ने रख ली आबरू
वर्ना दिल की बात थी कुछ खेल बच्चों का न था

बच के तूफ़ाँ से निकल आया तो हैरानी है क्यूँ
गो सफ़ीना डूबता था हौसला टूटा न था

आप आए तो यक़ीं करना पड़ा वर्ना यहाँ
रात को सूरज कभी अफ़्लाक पर निकला न था

शहर-ए-दिल्ली आईना-ख़ाना है लेकिन ऐ 'अता'
जाल तो ख़ुश-फ़हमियों का आप को बुनना न था