EN اردو
सर पे सजने को जो तय्यार है मेरे अंदर | शाही शायरी
sar pe sajne ko jo tayyar hai mere andar

ग़ज़ल

सर पे सजने को जो तय्यार है मेरे अंदर

लियाक़त जाफ़री

;

सर पे सजने को जो तय्यार है मेरे अंदर
गर्द-आलूद सी दस्तार है मेरे अंदर

जिस के मर जाने का एहसास बना रहता है
मुझ से बढ़ कर कोई बीमार है मेरे अंदर

रोज़ अश्कों की नई फ़स्ल उगा देता है
एक बूढ़ा सा ज़मींदार है मेरे अंदर

कितना घनघोर अँधेरा है मिरी रग रग में
इस क़दर रौशनी दरकार है मेरे अंदर

दब के मर जाऊँगा इक रोज़ मैं अपने नीचे
एक गिरती हुई दीवार है मेरे अंदर

कौन देता है ये हर वक़्त गवाही मेरी
कौन ये मेरा तरफ़-दार है मेरे अंदर

मेरे लिक्खे हुए हर लफ़्ज़ को झुटलाता है
मुझ से बढ़ कर कोई फ़नकार है मेरे अंदर