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सर-निगूँ दिल की तरह दस्त-ए-दुआ हो भी चुके | शाही शायरी
sar-nigun dil ki tarah dast-e-dua ho bhi chuke

ग़ज़ल

सर-निगूँ दिल की तरह दस्त-ए-दुआ हो भी चुके

ख़्वाज़ा रज़ी हैदर

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सर-निगूँ दिल की तरह दस्त-ए-दुआ हो भी चुके
सिलसिले जिन के जुदा थे वो जुदा हो भी चुके

दश्त में आया नहीं नाक़ा-ए-महमिल-बर-दोश
नक़्श कुछ सूरत-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हो भी चुके

नख़्ल-ए-उम्मीद रहा फिर भी नुमू से महरूम
जब कि मौसम कई आग़ोश-कुशा हो भी चुके

एक बे-नाम सी हसरत है बदन में बाक़ी
जिस क़दर क़र्ज़ थे शब के वो अदा हो भी चुके

ख़्वाहिश-ए-उक़्दा-कुशाई पे नदामत कैसी
रस्म-ए-नाख़ुन से ख़फ़ा बंद-ए-क़बा हो भी चुके

अब तो बस एक तसलसुल है तअल्लुक़ का दराज़
इम्तिहाँ हो भी चुका वादे वफ़ा हो भी चुके

कब तक ऐ बाद-ए-सबा तुझ से तवक़्क़ो रक्खूँ
दिल तमन्ना का शजर है तो हरा हो भी चुके

मैं तो इक गूँज में ज़िंदा हूँ सर-ए-बज़्म 'रज़ी'
जिन को होना था यहाँ नग़्मा-सरा हो भी चुके