सर में जब इश्क़ का सौदा न रहा
क्या कहें ज़ीस्त में क्या क्या न रहा
अब तो दुनिया भी वो दुनिया न रही
अब तिरा ध्यान भी उतना न रहा
क़िस्सा-ए-शौक़ सुनाऊँ किस को
राज़दारी का ज़माना न रहा
ज़िंदगी जिस की तमन्ना में कटी
वो मिरे हाल से बेगाना रहा
डेरे डाले हैं ख़िज़ाँ ने चौ-देस
गुल तो गुल बाग़ में काँटा न रहा
दिन दहाड़े ये लहू की होली
ख़ल्क़ को ख़ौफ़ ख़ुदा का न रहा
अब तो सो जाओ सितम के मारो
आसमाँ पर कोई तारा न रहा
ग़ज़ल
सर में जब इश्क़ का सौदा न रहा
नासिर काज़मी