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सर-ए-तुर्बत कहीं इक हुस्न की तस्वीर देखी है | शाही शायरी
sar-e-turbat kahin ek husn ki taswir dekhi hai

ग़ज़ल

सर-ए-तुर्बत कहीं इक हुस्न की तस्वीर देखी है

शिव चरन दास गोयल ज़ब्त

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सर-ए-तुर्बत कहीं इक हुस्न की तस्वीर देखी है
अरे ओ मरने वाले यूँ तिरी तक़दीर देखी है

सुलगती आग के दरिया किए तय डूब कर मैं ने
तड़पती ज़िंदगी से बाज़ी-ए-शमशीर देखी है

न बहलाएँ मुझे अब झूटे वा'दों से मिरे रहबर
बहुत कुछ आज तक उन की रह-ए-तदबीर देखी है

पहाड़ों को हिला दे मुंक़लिब कर दे ज़मानों को
नज़र ने वो सदा-ए-हल्क़ा-ए-ज़ंजीर देखी है

बना दे मुझ से जैसे ना-बलद को भी जो इक शाइ'र
वो मैं ने हज़रत-ए-'मख़मूर' में तासीर देखी है

ग़रीबी मुफ़्लिसी बेचारगी ग़म की हिरासानी
ब-अंदाज़-ए-जली हर सम्त ये तहरीर देखी है

जो आहन मोम कर दे और पत्थर को भी पिघला दे
जनाब-ए-'ज़ब्त' की बातों में वो तासीर देखी है