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सर-ए-सहरा हबाब बेचे हैं | शाही शायरी
sar-e-sahra habab beche hain

ग़ज़ल

सर-ए-सहरा हबाब बेचे हैं

जौन एलिया

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सर-ए-सहरा हबाब बेचे हैं
लब-ए-दरिया सराब बेचे हैं

और तो क्या था बेचने के लिए
अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं

ख़ुद सवाल उन लबों से कर के मियाँ
ख़ुद ही उन के जवाब बेचे हैं

ज़ुल्फ़-कूचों में शाना-कुश ने तिरे
कितने ही पेच-ओ-ताब बेचे हैं

शहर में हम ख़राब हालों ने
हाल अपने ख़राब बेचे हैं

जान-ए-मन तेरी बे-नक़ाबी ने
आज कितने नक़ाब बेचे हैं

मेरी फ़रियाद ने सुकूत के साथ
अपने लब के अज़ाब बेचे हैं