EN اردو
सर-ए-राह कुछ भी कहा नहीं कभी उस के घर मैं गया नहीं | शाही शायरी
sar-e-rah kuchh bhi kaha nahin kabhi uske ghar main gaya nahin

ग़ज़ल

सर-ए-राह कुछ भी कहा नहीं कभी उस के घर मैं गया नहीं

बशीर बद्र

;

सर-ए-राह कुछ भी कहा नहीं कभी उस के घर मैं गया नहीं
मैं जनम जनम से उसी का हूँ उसे आज तक ये पता नहीं

उसे पाक नज़रों से चूमना भी इबादतों में शुमार है
कोई फूल लाख क़रीब हो कभी मैं ने उस को छुआ नहीं

ये ख़ुदा की देन अजीब है कि इसी का नाम नसीब है
जिसे तू ने चाहा वो मिल गया जिसे मैं ने चाहा मिला नहीं

इसी शहर में कई साल से मिरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं
उन्हें मेरी कोई ख़बर नहीं मुझे उन का कोई पता नहीं