सर-ए-ख़याल मैं जब भूल भी गई कि मैं हूँ
अचानक एक अजब बात ये सुनी कि मैं हूँ
तलाश कर के मुझे लूटने को था कोई
मिरे वजूद की ख़ुशबू पुकार उठी कि मैं हूँ
कि तीरगी में पली आँख को यक़ीं आ जाए
ज़रा बुलंद हो आहंग-ए-रौशनी कि मैं हूँ
वो ख़ाली जान के घर लूटने को आया था
मरे अदू को ख़बर आज हो गई कि मैं हूँ
न-जाने कैसी निगाहों से मौत ने देखा
हुई है नींद से बेदार ज़िंदगी कि मैं हूँ
लपेट दो सफ़-ए-मातम उठा रखो नौहे
पुकारता सर-ए-महशर सुना कोई कि मैं हूँ
ग़ज़ल
सर-ए-ख़याल मैं जब भूल भी गई कि मैं हूँ
साइमा इसमा