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सर-ए-अफ़्लाक बिछा चाहती है | शाही शायरी
sar-e-aflak bichha chahti hai

ग़ज़ल

सर-ए-अफ़्लाक बिछा चाहती है

विकास शर्मा राज़

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सर-ए-अफ़्लाक बिछा चाहती है
अब मिरी ख़ाक हवा चाहती है

मैं कहाँ चाहता हूँ सन्नाटा
मेरे अंदर की फ़ज़ा चाहती है

मेरी आवाज़ तो इक क़तरा है
ख़ामुशी सैल-ए-नवा चाहती है

मैं कि भरने में लगा हूँ ख़ुद को
और ग़ज़ल मुझ में ख़ला चाहती है