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सर-ब-सर शाख़-ए-दिल हरी रहेगी | शाही शायरी
sar-ba-sar shaKH-e-dil hari rahegi

ग़ज़ल

सर-ब-सर शाख़-ए-दिल हरी रहेगी

राशिदा माहीन मलिक

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सर-ब-सर शाख़-ए-दिल हरी रहेगी
ता-अबद आँख में तरी रहेगी

मैं ने क़िस्सा ही पाक कर डाला
इश्क़ होगा न ख़ुद-सरी रहेगी

अक्स बनते रहेंगे पेश-ए-नज़र
सूरत-ए-आईना-गरी रहेगी

सत्र-दर-सत्र ख़ूँ जलाया है
लफ़्ज़ में रौशनी भरी रहेगी

ख़ामुशी ओढ़ ली दरख़्तों ने
आरज़ू-ए-सुख़न-वरी रहेगी

कोई मंज़िल तलाश ली जाए
अब कहाँ तक ये बे-घरी रहेगी

बाग़ में है क़याम का मौक़ा
सब परिंदों से दिलबरी रहेगी

क्या हमेशा भटकना है मुझ को
क्या हमेशा सुबुक-सरी रहेगी

ज़िंदगी से डरी रहूँगी मैं
ज़िंदगी साए से डरी रहेगी

चाँद अगर डूब भी गया 'माहीन'
ताक़ पर चाँदनी धरी रहेगी