सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे
और फिर ख़ुद ही तह-ए-ख़ाक छुपाता है मुझे
कब से सुनता हूँ वही एक सदा-ए-ख़ामोश
कोई तो है जो बुलंदी से बुलाता है मुझे
रात आँखों में मिरी गर्द-ए-सियह डाल के वो
फ़र्श-ए-बे-ख़्वाबी-ए-वहशत पे सुलाता है मुझे
गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में
देखता हूँ वो किधर ढूँडने जाता है मुझे
दीदनी है ये तवज्जोह भी ब-अंदाज़-ए-सितम
उम्र भर शीशा-ए-ख़ाली से पिलाता है मुझे
हमा-अंदेशा-ए-गिर्दाब ब-पहलू-ए-नशात
मौज-दर-मौज ही साहिल नज़र आता है मुझे
ग़ज़ल
सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे
अहमद महफ़ूज़