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सपन कितना सलोना चाहती थी | शाही शायरी
sapan kitna salona chahti thi

ग़ज़ल

सपन कितना सलोना चाहती थी

नीना सहर

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सपन कितना सलोना चाहती थी
तिरी महबूब होना चाहती थी

ये मोहलत ही नहीं दी ज़िंदगी ने
मैं तेरे साथ रोना चाहती थी

तिरी साँसों की ख़ुशबू से भरे हों
मैं ऐसे फूल बोना चाहती थी

तिरी आग़ोश में आ कर ये जाना
कि मैं सदियों से सोना चाहती थी

ये मेरे आँसुओं की इंतिशारी
तिरे ग़म का बिछौना चाहती थी

मयस्सर ही न हो पाया मुझे तू
में ख़ुद को तुझ में खोना चाहती थी