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संग-रेज़ों की तरह पेश-ए-नज़र रहते हैं | शाही शायरी
sang-rezon ki tarah pesh-e-nazar rahte hain

ग़ज़ल

संग-रेज़ों की तरह पेश-ए-नज़र रहते हैं

साबिर शाह साबिर

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संग-रेज़ों की तरह पेश-ए-नज़र रहते हैं
मेरे कासे में पड़े लाल-ओ-गुहर रहते हैं

साए चुनते हैं कड़ी धूप के सहरा से हम
पा-शिकस्ता हैं मगर महव-ए-सफ़र रहते हैं

काल कोयल की सदाएँ न शफ़क़ रंग कहीं
शहर में जाने कहाँ शाम-ओ-सहर रहते हैं

खेलते हैं मिरे आँगन में वो ख़ुश ख़ुश बाहम
रंज ख़ुशियों से बहुत शीर-ओ-शकर रहते हैं

ख़ेमा-ज़न हो तो गए ख़ाना-बदोशी न गई
बे-घरी में भी सदा दोश पे घर रहते हैं

क़हत-साली है बसीरत की नगर में 'साबिर'
कोर-चश्मों से यहाँ अहल-ए-नज़र रहते हैं