संग-रेज़ों की तरह पेश-ए-नज़र रहते हैं
मेरे कासे में पड़े लाल-ओ-गुहर रहते हैं
साए चुनते हैं कड़ी धूप के सहरा से हम
पा-शिकस्ता हैं मगर महव-ए-सफ़र रहते हैं
काल कोयल की सदाएँ न शफ़क़ रंग कहीं
शहर में जाने कहाँ शाम-ओ-सहर रहते हैं
खेलते हैं मिरे आँगन में वो ख़ुश ख़ुश बाहम
रंज ख़ुशियों से बहुत शीर-ओ-शकर रहते हैं
ख़ेमा-ज़न हो तो गए ख़ाना-बदोशी न गई
बे-घरी में भी सदा दोश पे घर रहते हैं
क़हत-साली है बसीरत की नगर में 'साबिर'
कोर-चश्मों से यहाँ अहल-ए-नज़र रहते हैं

ग़ज़ल
संग-रेज़ों की तरह पेश-ए-नज़र रहते हैं
साबिर शाह साबिर