संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ 
आज उस कूचे में गुज़र न हुआ 
हम भी थे जौहर-ए-गिराँ-माया 
पर कोई साहिब-ए-नज़र न हुआ 
अम्न-आलम में क्यूँ नहीं या रब 
इस के क़ाबिल मगर बशर न हुआ 
बे-कसी पर्दा-दार-ए-दर्द हुई 
ख़ैर गुज़री कि अपना घर न हुआ 
क़द्रदानी की कैफ़ियत मालूम 
ऐब क्या है अगर हुनर न हुआ 
सर झुकाए जो आते हो 'वहशत' 
मगर इस बज़्म में गुज़र न हुआ
        ग़ज़ल
संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ
वहशत रज़ा अली कलकत्वी

