संग आता है कोई जब मिरे सर की जानिब
देख लेता हूँ समर-बार शजर की जानिब
इस मसाफ़त का कोई अंत नहीं है लेकिन
दिन निकलते ही मैं चल पड़ता हूँ घर की जानिब
किस ने आवाज़ मुझे साहिल-ए-जाँ से दी है
नाव क्यूँ दिल की लपकती है भँवर की जानिब
क़िस्सा-ए-शौक़ को उस तिश्ना-लबी का लिखना
कर के इक और सफ़र शहर-ए-हुनर की जानिब
फिर से अँगारों का मौसम मिरे अंदर उतरा
फिर बढ़ा हाथ मिरा लाल-ओ-गुहर की जानिब
ये जो है सूरत-ए-हालात बदल सकती है
काश कर पाँव सफ़र ख़ैर से शर की जानिब
ऐन मुमकिन है कि पथराता न कोई 'अज़्मी'
तू ने देखा ही नहीं मुड़ के नगर की जानिब

ग़ज़ल
संग आता है कोई जब मिरे सर की जानिब
इस्लाम उज़्मा