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संग आता है कोई जब मिरे सर की जानिब | शाही शायरी
sang aata hai koi jab mere sar ki jaanib

ग़ज़ल

संग आता है कोई जब मिरे सर की जानिब

इस्लाम उज़्मा

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संग आता है कोई जब मिरे सर की जानिब
देख लेता हूँ समर-बार शजर की जानिब

इस मसाफ़त का कोई अंत नहीं है लेकिन
दिन निकलते ही मैं चल पड़ता हूँ घर की जानिब

किस ने आवाज़ मुझे साहिल-ए-जाँ से दी है
नाव क्यूँ दिल की लपकती है भँवर की जानिब

क़िस्सा-ए-शौक़ को उस तिश्ना-लबी का लिखना
कर के इक और सफ़र शहर-ए-हुनर की जानिब

फिर से अँगारों का मौसम मिरे अंदर उतरा
फिर बढ़ा हाथ मिरा लाल-ओ-गुहर की जानिब

ये जो है सूरत-ए-हालात बदल सकती है
काश कर पाँव सफ़र ख़ैर से शर की जानिब

ऐन मुमकिन है कि पथराता न कोई 'अज़्मी'
तू ने देखा ही नहीं मुड़ के नगर की जानिब