समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो
सरों पे साया-फ़गन ये ग़ुबार-ए-आब न हो
वो आसमान समझता है अपनी आँखों को
उसे भी मेरी तरह इंतिज़ार-ए-आब न हो
हर एक लब पे हैं नग़्मात ख़ुश्क-साली के
अब इस तरफ़ करम-ए-बे-शुमार-ए-आब न हो
कहीं फ़रेब न निकले पुकार दरिया की
हम आब समझे हैं जिस को ग़ुबार-ए-आब न हो
फिर एहतिमाम से आए हैं घिर के अब्र मगर
वो क्या करे कि जिसे ए'तिबार-ए-आब न हो
सियाह होने लगा है दयार-ए-तिश्ना-लबी
अब इस मक़ाम से रौशन शरार-ए-आब न हो
जो घर से निकला है पानी की खोज में 'शाहिद'
कहीं वो दफ़्न सर-ए-रहगुज़ार आब न हो
ग़ज़ल
समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो
शाहिद मीर