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समुंदर आँख से ओझल ज़रा नहीं होता | शाही शायरी
samundar aankh se ojhal zara nahin hota

ग़ज़ल

समुंदर आँख से ओझल ज़रा नहीं होता

परवीन कुमार अश्क

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समुंदर आँख से ओझल ज़रा नहीं होता
नदी को डर किसी चट्टान का नहीं होता

वो जब भी रोता है मैं साथ साथ रोता हूँ
मज़े की बात है उस को पता नहीं होता

मुसाफ़िरों के लिए मंज़िलें ही होती हैं
मुसाफ़िरों के लिए रास्ता नहीं होता

तमाशा-गाह में किस का तमाशा होता है
तमाश-बीनों को उस का पता नहीं होता

मैं रोज़ फ़ोन पर उस को सदाएँ देता हूँ
ख़ुदा के साथ मिरा राब्ता नहीं होता

जहाँ मिलें उन्हें सज्दा गुज़ारिए साहब
मोहब्बतों के लिए सोचना नहीं होता

वहाँ चराग़ जलाता हूँ ज़िंदगी का 'अश्क'
जहाँ हवा के लिए रास्ता नहीं होता