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समेट लो ये प्यार की निशानियाँ समेट लो | शाही शायरी
sameT lo ye pyar ki nishaniyan sameT lo

ग़ज़ल

समेट लो ये प्यार की निशानियाँ समेट लो

मोनी गोपाल तपिश

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समेट लो ये प्यार की निशानियाँ समेट लो
ये क़िस्सा-ए-अलम रुके कहानियाँ समेट लो

हवस के हौल-नाक बिस्तरों पे दम न तोड़ दें
अब अपनी राबतों की ज़िंदगानियाँ समेट लो

कभी तो दो घड़ी रुको की रास्ते उदास हैं
कभी तो मंज़िलों की ये रवानियाँ समेट लो

क़लम की नोक पर जो ज़ख़्म हैं उन्हें हवा न दो
तुम अपने शौक़ की ये ना-तवानियाँ समेट लो

ये सर्द सर्द गुफ़्तुगू 'तपिश' है किस के रू-ब-रू
सजाओ बज़्म सारी बद-गुमानियाँ समेट लो