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सँभल के देखा तो काँच सा जिस्म किर्चियों में बटा हुआ था | शाही शायरी
sambhal ke dekha to kanch sa jism kirchiyon mein baTa hua tha

ग़ज़ल

सँभल के देखा तो काँच सा जिस्म किर्चियों में बटा हुआ था

निसार नासिक

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सँभल के देखा तो काँच सा जिस्म किर्चियों में बटा हुआ था
ख़बर नहीं है कि मेरे अंदर वो इक धमाका सा किया हुआ था

वो खो गया था तो यूँ लगा था कि इज़्ज़त-ए-नफ़्स लुट गई है
मैं रोज़ के मिलने वाले लोगों में इक खिलौना बना हुआ था

ख़िज़ाँ की वो सर्द रात भी मैं ने घर से बाहर गुज़ार दी थी
कि मेरे बिस्तर पे लाश बन कर मिरा ही साया पड़ा हुआ था

सब अपनी अपनी सदा के परचम सपुर्द-ए-शब कर के सो चुके थे
बस एक मैं ही मुहीब लम्हों के लश्करों में घिरा हुआ था

जिसे वो साँसों की लोरियों से मिरे बदन में सुला गई थी
पलट के आई तो वो चहकता शरीर बच्चा मरा हुआ था

ये एक परछाईं सी जो सदियों से मेरे हम-राह चल रही है
यही मिरा हर्फ़-ए-इब्तिदा है मैं जिस से इक दिन जुदा हुआ था