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सँभल ही लेंगे मुसलसल तबाह हों तो सही | शाही शायरी
sambhal hi lenge musalsal tabah hon to sahi

ग़ज़ल

सँभल ही लेंगे मुसलसल तबाह हों तो सही

किश्वर नाहीद

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सँभल ही लेंगे मुसलसल तबाह हों तो सही
अज़ाब-ए-ज़ीस्त में रश्क-ए-गुनाह हों तो सही

कहीं तो साहिल-ए-ना-याफ़्त का निशाँ होगा
जला के ख़ुद को तक़ाज़ा-ए-आह हों तो सही

मजाल क्या कि न मंज़िल बने निशान-ए-वफ़ा
सफ़ीर-ए-ख़ुद-निगराँ गर्द-ए-राह हों तो सही

सदा-ब-दश्त बनेगी न ये लहू की तपिश
लहू के छींटे मगर गाह गाह हों तो सही