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सँभल ऐ क़दम कि ये कारगाह-ए-निशात-ओ-ग़म है ख़बर भी है | शाही शायरी
sambhal ai qadam ki ye kar-gah-e-nishat-o-gham hai KHabar bhi hai

ग़ज़ल

सँभल ऐ क़दम कि ये कारगाह-ए-निशात-ओ-ग़म है ख़बर भी है

शाज़ तमकनत

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सँभल ऐ क़दम कि ये कारगाह-ए-निशात-ओ-ग़म है ख़बर भी है
जिसे लोग कहते हैं रहगुज़र किसी पा-शिकस्ता का घर भी है

मुझे मुद्दतों यही वहम था कि ये ख़ाक कीमिया बन गई
इसी कश्मकश में गुज़र गई कि फ़ुग़ाँ करूँ तो असर भी है

हमा-इंकिसार की कैफ़ियत है दम-ए-विदाअ' की बेबसी
मुझे यूँ पयाम-ए-सुकूँ न दे तुझे अपने आप से डर भी है

मिरी जुरअतों पे भी कर नज़र तुझे चाहूँ सौ दफ़ा टूट कर
ये बजा कि सीना-ए-शौक़ में ग़म-ए-पास्बानी-ए-दर भी है

तुझे आगही की नहीं ख़बर मिरी गुमरही पे न तंज़ कर
अरे वक़्त वक़्त की बात है यही ऐब रश्क-ए-हुनर भी है

कोई उस का दर्द भी पूछता कि वो कुछ दिनों से उदास है
ये जुनूँ की पुर्सिश-ए-हाल क्या जो अज़ल से ख़ाक-बसर भी है

ये है बे-गुनाही का माजरा कोई यूँही मुझ से खिंचा रहा
यही सोच सोच के रह गया कि मिरे ख़ुदा को ख़बर भी है

तुझे खो के गो मैं सँभल गया ये न कह कि 'शाज़' बदल गया
पस-ए-पर्दा तेरी पनाह में मिरी शाम भी है सहर भी है