सँभल ऐ क़दम कि ये कारगाह-ए-निशात-ओ-ग़म है ख़बर भी है
जिसे लोग कहते हैं रहगुज़र किसी पा-शिकस्ता का घर भी है
मुझे मुद्दतों यही वहम था कि ये ख़ाक कीमिया बन गई
इसी कश्मकश में गुज़र गई कि फ़ुग़ाँ करूँ तो असर भी है
हमा-इंकिसार की कैफ़ियत है दम-ए-विदाअ' की बेबसी
मुझे यूँ पयाम-ए-सुकूँ न दे तुझे अपने आप से डर भी है
मिरी जुरअतों पे भी कर नज़र तुझे चाहूँ सौ दफ़ा टूट कर
ये बजा कि सीना-ए-शौक़ में ग़म-ए-पास्बानी-ए-दर भी है
तुझे आगही की नहीं ख़बर मिरी गुमरही पे न तंज़ कर
अरे वक़्त वक़्त की बात है यही ऐब रश्क-ए-हुनर भी है
कोई उस का दर्द भी पूछता कि वो कुछ दिनों से उदास है
ये जुनूँ की पुर्सिश-ए-हाल क्या जो अज़ल से ख़ाक-बसर भी है
ये है बे-गुनाही का माजरा कोई यूँही मुझ से खिंचा रहा
यही सोच सोच के रह गया कि मिरे ख़ुदा को ख़बर भी है
तुझे खो के गो मैं सँभल गया ये न कह कि 'शाज़' बदल गया
पस-ए-पर्दा तेरी पनाह में मिरी शाम भी है सहर भी है

ग़ज़ल
सँभल ऐ क़दम कि ये कारगाह-ए-निशात-ओ-ग़म है ख़बर भी है
शाज़ तमकनत