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सँभालने से तबीअत कहाँ सँभलती है | शाही शायरी
sambhaalne se tabiat kahan sambhalti hai

ग़ज़ल

सँभालने से तबीअत कहाँ सँभलती है

महबूब ख़िज़ां

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सँभालने से तबीअत कहाँ सँभलती है
वो बे-कसी है कि दुनिया रगों में चलती है

ये सर्द-मेहर उजाला ये जीती-जागती रात
तिरे ख़याल से तस्वीर-ए-माह जलती है

वो चाल हो कि बदन हो कमान जैसी कशिश
क़दम से घात अदा से अदा निकलती है

तुम्हें ख़याल नहीं किस तरह बताएँ तुम्हें
कि साँस चलती है लेकिन उदास चलती है

तुम्हारे शहर का इंसाफ़ है अजब इंसाफ़
इधर निगाह उधर ज़िंदगी बदलती है

बिखर गए मुझे साँचे में ढालने वाले
यहाँ तो ज़ात भी साँचे समेत ढलती है

ख़िज़ाँ है हासिल-ए-हंगामा-ए-बहार 'ख़िज़ाँ'
बहार फूलती है काएनात फलती है