समझते हैं जो कमतर हर किसी को
वो समझें तो सही अपनी कमी को
जहाँ में जुज़ ग़म-ओ-रंज-ओ-मुसीबत
मिला भी है अज़ीज़ो कुछ किसी को
कहें भी तो कहें अब क्या किसी से
सुनाएँ तो सुनाएँ क्या किसी को
हक़ीक़त में नहीं बनते किसी के
बनाते हैं जो अपना हर किसी को
न पा-ए-रफ़तन अब ने जा-ए-मा'दिन
कहाँ तक रोएँ अपनी बेबसी को
तअ'ज्जुब है समझने पर भी सब कुछ
न समझा आदमी ने आदमी को
ज़िया-ए-हज़रत-ए-'अनवर' ने 'रिफ़अत'
जिला बख़्शी है मेरी शाइ'री को
ग़ज़ल
समझते हैं जो कमतर हर किसी को
सुदर्शन कुमार वुग्गल