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समझ रहा है ज़माना रिया के पीछे हूँ | शाही शायरी
samajh raha hai zamana riya ke pichhe hun

ग़ज़ल

समझ रहा है ज़माना रिया के पीछे हूँ

जावेद शाहीन

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समझ रहा है ज़माना रिया के पीछे हूँ
मैं एक और तरह से ख़ुदा के पीछे हूँ

कहीं कहीं से ज़्यादा सियह है मेरा बदन
बहुत ही काली है जो इस हवा के पीछे हूँ

ये आ रही है कहाँ से समझ नहीं आती
बहुत ही भेद भरी इक सदा के पीछे हूँ

तिरी बनाई हुई फ़र्द-ए-जुर्म कहती है
कि जैसे मैं ही यहाँ हर ख़ता के पीछे हूँ

ज़रा सा देख लूँ फिर पूरा खींच लूँगा उसे
अज़ल से ही मैं किसी कम-नुमा के पीछे हूँ

है कुछ ग़लत सा मिरी ही सरिश्त में 'शाहीं'
मैं ख़ुद ही अपनी हर इक इब्तिला के पीछे हूँ