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समझ में आती है बादल की आह-ओ-ज़ारी अब | शाही शायरी
samajh mein aati hai baadal ki aah-o-zari ab

ग़ज़ल

समझ में आती है बादल की आह-ओ-ज़ारी अब

शाइस्ता यूसुफ़

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समझ में आती है बादल की आह-ओ-ज़ारी अब
वो मेहरबान मुझे भी बहुत रुलाता है

मुमासलत ही नहीं साथ रहने वालों में
कोई बताए मुझे किस से मेरा नाता है

लगा कि क़ुफ़्ल मिरे ख़्वाब के दरीचों को
तिरा ख़याल अज़ाबों से क्यूँ डराता है

समझ में आता नहीं ज़िंदा हैं कि मुर्दा हैं
कभी तो मारता है और कभी जिलाता है

हज़ारों तारे हैं तेरी हथेलियों में मगर
तू आ के घर से मेरे चाँद क्यूँ चुराता है