समझ के फ़र्ज़ कभी दिन को रात मत करना
गुज़रते लम्हों से तक़्सीम ज़ात मत करना
बचा कर तेज़ हवा में बिखरना पड़ता है
अना को नज़र ग़म-ए-हादसात मत करना
न जाने कौन कहाँ क्या सवाल कर बैठे
ग़ुबार-ए-राहगुज़र अपने साथ मत करना
समेटना न सर-ए-राह ख़्वाब की किर्चें
लहू-लुहान कभी अपने हाथ मत करना
नहीं गुनाह किसी शय की आरज़ू लेकिन
इस आरज़ू को ग़म-ए-काएनात मत करना
हैं दरमियाँ में अभी फ़ासले उसूलों के
क़रीब आ के अभी मुझ से बात मत करना
ज़वाल-ए-ज़ात तो 'पर्वाज़' सब की क़िस्मत है
यक़ीन-ए-दिल को मगर बे-सबात मत करना
ग़ज़ल
समझ के फ़र्ज़ कभी दिन को रात मत करना
नसीर प्रवाज़