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समाँ ग़ुरूब का दिल में रहा उभरते हुए | शाही शायरी
saman ghurub ka dil mein raha ubharte hue

ग़ज़ल

समाँ ग़ुरूब का दिल में रहा उभरते हुए

ख़ुर्शीद रिज़वी

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समाँ ग़ुरूब का दिल में रहा उभरते हुए
ख़याल ख़ाक में मिलने का था सँवरते हुए

ज़मीं उदास है और आसमाँ पे ख़ंदा-कुनाँ
गुज़र रहे हैं सितारे उदास करते हुए

बिखर गया तो मुझे कोई ग़म नहीं इस का
कि राज़ मुझ पे कई वा हुए बिखरते हुए

फ़सुर्दा इतनी है इस बार रहगुज़ार-ए-ख़याल
ख़िराम-ए-यार झिजकता है गुल कतरते हुए

मुझे भी अपना दिल-ए-रफ़्ता याद आता है
कभी कभी किसी बाज़ार से गुज़रते हुए

ज़माना लब पे ये अंगुश्त रख के कहता है
कि दर्द-ए-दिल न कहो और कहो तो डरते हुए

लबों से नीम तबस्सुम भी उठ गया 'ख़ुर्शीद'
उदासियों का मुदावा तलाश करते हुए