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समाअतों को अमीन-ए-नवा-ए-राज़ किया | शाही शायरी
samaaton ko amin-e-nawa-e-raaz kiya

ग़ज़ल

समाअतों को अमीन-ए-नवा-ए-राज़ किया

सलीम अहमद

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समाअतों को अमीन-ए-नवा-ए-राज़ किया
मैं बे-सुख़न था मुझे उस ने नय-नवाज़ किया

वो अपने-आप ही नादिम है वर्ना हम ने तो
तलाश उस की हर इक बात का जवाज़ किया

ये उस निगाह की ईमाइयत-पसंदी है
जो सामने की थीं बातें उन्हें भी राज़ किया

बदन की आग को कहते हैं लोग झूटी आग
मगर उस आग ने दिल को मिरे गुदाज़ किया

यहाँ हवा से बचा कर चराग़ रक्खे हैं
मकाँ के बंद दरीचों को किस ने बाज़ किया