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समाअ'तों के लिए राज़ छोड़ आए हैं | शाही शायरी
samaaton ke liye raaz chhoD aae hain

ग़ज़ल

समाअ'तों के लिए राज़ छोड़ आए हैं

मोहसिन असरार

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समाअ'तों के लिए राज़ छोड़ आए हैं
हम उस के शहर में आवाज़ छोड़ आए हैं

हम उस की सोच में इम्कान-ए-इंतिहा से अलग
नया सफ़र नया आग़ाज़ छोड़ आए हैं

मुज़ाकरात सर-ए-वस्ल कामयाब रहे
जो कुछ किया था पस-अंदाज़ छोड़ आए हैं

हवा में उड़ता हुआ रिज़्क़ पा लिया लेकिन
परिंदे जुरअत-ए-पर्वाज़ छोड़ आए हैं

लबों को उस की हथेली पे रख के हम 'मोहसिन'
तख़य्युलात के ए'जाज़ छोड़ आए हैं