EN اردو
समाअ'त के लिए इक इम्तिहाँ है | शाही शायरी
samaat ke liye ek imtihan hai

ग़ज़ल

समाअ'त के लिए इक इम्तिहाँ है

बकुल देव

;

समाअ'त के लिए इक इम्तिहाँ है
ख़मोशी इन दिनों मिस्ल-ए-बयाँ है

सफ़र अपने ही भीतर कर रहा हूँ
मिरा ठहराव मुद्दत से रवाँ है

हवस शामिल है थोड़ी सी दुआ में
अभी इस लौ में हल्का सा धुआँ है

नया इक ख़्वाब देखें और रोएँ
अब इतनी ताब आँखों में कहाँ है

उड़ा देती है अपनी ख़ाक जब तब
ज़मीं की जुस्तुजू भी आसमाँ है

तभी आहों के सुर उठते हैं इस से
हमारा सोज़-ए-जाँ ही साज़-ए-जाँ है

हमेशा दूर से देखा किया हूँ
जहाँ मुझ को जवाहिर की दुकाँ है

मिरा किरदार इस में हो गया गुम
तुम्हारी याद भी इक दास्ताँ है

मोहब्बत एक कश्ती मुख़्तसर सी
तमन्नाओं का दरिया बे-कराँ है

मैं सारे फ़ासले तय कर चुका हूँ
ख़ुदी जो दरमियाँ थी दरमियाँ है

'बकुल' ख़्वाबों के पंछी आ बसे हैं
हमारा आशियाँ अब आशियाँ है