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सजे-सजाए हुए सब्ज़ मंज़रों से न जाएँ | शाही शायरी
saje-sajae hue sabz manzaron se na jaen

ग़ज़ल

सजे-सजाए हुए सब्ज़ मंज़रों से न जाएँ

असअ'द बदायुनी

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सजे-सजाए हुए सब्ज़ मंज़रों से न जाएँ
ख़ुदा करे कि ये दरिया कभी घरों से न जाएँ

बनाम-ए-इश्क़-ओ-हवस कुछ न कुछ रहे रौशन
कुछ ऐसा हो कि ये सौदे कभी सरों से न जाएँ

फ़ज़ा-ए-दश्त-ए-तरब-नाक को दवाम मिले
गुलाब ख़ुश्बू से और तितलियाँ परों से न जाएँ

ज़रूरतों को ज़ियादा न कर ख़ुदा-ए-करीम
निकल के पाँव बहुत दूर चादरों से न जाएँ

हुरूफ़-ओ-नुत्क़ की हर अंजुमन में रौनक़ हो
ख़याल रूठ के हरगिज़ सुख़न-वरों से न जाएँ

इसी तरह सफ़-ए-सय्यारगाँ रहे क़ाएम
नुजूम-ओ-माह अलग अपने महवरों से न जाएँ

अमीर-ए-अस्र से फ़रियाद करना चाहते हैं
सरों को फोड़ने ये लोग पत्थरों से न जाएँ