EN اردو
सहराओं में भी कोई हमराज़ गुलों का है | शाही शायरी
sahraon mein bhi koi hamraaz gulon ka hai

ग़ज़ल

सहराओं में भी कोई हमराज़ गुलों का है

वाजिद सहरी

;

सहराओं में भी कोई हमराज़ गुलों का है
गुलशन में कोई रह कर ख़ुशबू को तरसता है

इक दिन तो खुलेगा ये दरवाज़ा-ए-दिल तेरा
अब देखना है कब तक एहसास भटकता है

नींदों के मकाँ में है जिस दिन से तिरा चेहरा
खुलती हैं ये आँखें तो इक ख़ौफ़ सा लगता है

इक रोज़ यही किर्चें बीनाइयाँ बख़्शेंगी
ये शीशा-ए-दिल तुम ने क्या सोच के तोड़ा है

कैसे मैं यक़ीं कर लूँ इख़्लास नहीं बाक़ी
अपनों की अदावत का ये ही तो वसीला है

जो हौसला तूफ़ाँ को इक खेल समझता था
अब आप की यादों के दरिया में वो डूबा है

साक़ी की तसल्ली भी वाजिद है नशा जैसे
इख़्लास का पैकर है अख़्लाक़ का पुतला है