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सहरा से नद्दी के सफ़र में रवाँ थी ख़ाक | शाही शायरी
sahra se naddi ke safar mein rawan thi KHak

ग़ज़ल

सहरा से नद्दी के सफ़र में रवाँ थी ख़ाक

महेंद्र कुमार सानी

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सहरा से नद्दी के सफ़र में रवाँ थी ख़ाक
यानी अपनी अस्ल में इक इम्काँ थी ख़ाक

ऐसी ताज़ा-कारी इस बोसीदा-वरक़ पर
मेरी शक्ल में आने से पहले कहाँ थी ख़ाक

हवा उड़ाई उस ने इक इक आलम की
ये उस दौर की बात है जब कि जवाँ थी ख़ाक

इक ख़ुशबू की ज़द में था उस का हर रक़्स
और इसी ख़ुशबू के लिए मकाँ थी ख़ाक

उस में जितनी गिरहें थीं सब आब की थीं
वर्ना अपने रंग में तो आसाँ थी ख़ाक