सहरा सहरा भटक रही हूँ मैं
अब नज़र आ कि थक रही हूँ मैं
बिछ रहे हैं सराब राहों में
हर क़दम पर अटक रही हूँ मैं
क्यूँ नज़र ख़ुद को मैं नहीं आती
कब से आईना तक रही हूँ मैं
हाए क्या वक़्त है कि अब उस की
बे-दिली में झलक रही हूँ मैं
वक़्त से टूटता हुआ लम्हा
और इस में धड़क रही हूँ मैं
जिस ने रुस्वा किया मुझे 'नुसरत'
उस के ऐबों को ढक रही हूँ मैं
ग़ज़ल
सहरा सहरा भटक रही हूँ मैं
नुसरत मेहदी