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सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में | शाही शायरी
sahra pe gar junun mujhe lawe itab mein

ग़ज़ल

सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में

क़ाएम चाँदपुरी

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सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में
खींचूँ हर एक ख़ार को पा-ए-हिसाब में

इस बर्क़ की तरह से कि हो वो सहाब में
आतिश दी बख़्त-ए-बद ने मुझे ऐन आब में

देखी थी ज़ुल्फ़ रात किसी की मैं ख़्वाब में
अब तक है बाल बाल मिरा पेच-ओ-ताब में

टुक ग़ौर कर तू बू-क़लमों का फ़लक के डोल
इक रंग है नया ही हर इक इंक़लाब में

उस शोला-ख़ू से कस्ब-ए-हरारत करे है दाग़
ज़र्रा है जिस का सोज़-ए-दिल-ए-आफ़्ताब में

मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजात
जलता नहीं वो उज़्व जो तर हो शराब में

जूँ मौज मुझ से मूजिब-ए-बे-ताक़ती न पूछ
इक उम्र है कि हूँ मैं इसी इज़्तिराब में

क़ाज़ी ख़बर ले मय को भी लिक्खा है वाँ मुबाह
रिश्वत का है जवाज़ तिरी जिस किताब में

रोज़-ए-शुमार गो हो मिरे साथ बाज़-पुर्स
मैं क्या हूँ और मेरे गुनह किस हिसाब में

ये सर-कशी है उतनी तनिक माएगी पे क्या
झम्का नहीं है बहर अगर इस सहाब में

क्या कीजे होवे चश्म मियाँ तेरी ही जो कोर
ज़ाहिर है वर्ना हुस्न वही हर नक़ाब में

नासेह न ताज़ा इश्क़ की मैं वज़्अ की है राह
हर कुछ करे है आदमी अहद-ए-शबाब में

क़ाएम है ये भी तौर कोई ज़िंदगी का याँ
गुज़री तमाम उम्र तिरी ख़ूर-ओ-ख़्वाब में

'क़ाएम' हो किस तरह से बहम शक्ल-ए-इख़्तिलात
वो इस ग़ुरूर-ए-नाज़ में हम इस हिजाब में