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सहरा को दरिया समझा था | शाही शायरी
sahra ko dariya samjha tha

ग़ज़ल

सहरा को दरिया समझा था

ख़ालिद मोईन

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सहरा को दरिया समझा था
मैं भी तुझ को क्या समझा था

हाथ छुड़ा कर जाने वाले
मैं तुझ को अपना समझा था

फिर जाऊँगा अपनी ज़बाँ से
क्या मुझ को ऐसा समझा था

इतनी आँख तो मुझ में भी थी
दुनिया को दुनिया समझा था

मैं ने तुझ को मंज़िल जाना
तू मुझ को रस्ता समझा था

बे-आईना शहर ने मुझ को
ख़ुद सा बे-चेहरा समझा था

क्या से क्या निकला है, तू भी
मैं तुझ को कैसा समझा था