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सहरा के संगीन सफ़र में आब-रसानी कम न पड़े | शाही शायरी
sahra ke sangin safar mein aab-rasani kam na paDe

ग़ज़ल

सहरा के संगीन सफ़र में आब-रसानी कम न पड़े

फ़रहत एहसास

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सहरा के संगीन सफ़र में आब-रसानी कम न पड़े
सारी आँखें भर कर रखना देखो पानी कम न पड़े

ज़ेहन-ए-मुसलसल क़िस्से सोचें होंठ मुसलसल ज़िक्र करें
सुब्ह तलक ज़िंदा रहना है कहीं कहानी कम न पड़े

इश्क़ ने सौंपा है मुझ को इक सहरा की ता'मीर का काम
और हिदायत की है ज़र्रा भर वीरानी कम न पड़े

मेरी शह-रग काटी उस ने और कहा शोख़ी के साथ
तू सच्चा आशिक़ है तो फिर देख रवानी कम न पड़े

थोड़ा थोड़ा मरता भी रहता हूँ मैं जीने के साथ
ताकि वक़्त-ए-ज़रूरत मरने की आसानी कम न पड़े

सज्दा करने को होता हूँ एक बहुत ही बड़े बुत का
और फिर सोचता हूँ ये छोटी सी पेशानी कम न पड़े

हमें छुपाने को दुनिया ने खोल दिए कपड़ों के थान
चाक-गरेबानी ये तिरा ज़ोर-ए-उर्यानी कम न पड़े

तुम 'फ़रहत-एहसास' बस अपने आप को मरने मत देना
ताकि दफ़्तर-ए-दुनिया में दख़्ल-ए-इंसानी कम न पड़े