सहरा ही ग़नीमत है, जो घर जाओगे लोगो
वो आलम-ए-वहशत है कि मर जाओगे लोगो
यादों के तआक़ुब में अगर जाओगे लोगो
मेरी ही तरह तुम भी बिखर जाओगे लोगो
वो मौज-ए-सबा भी हो तो होश्यार ही रहना
सूखे हुए पत्ते हो बिखर जाओगे लोगो
इस ख़ाक पे मौसम तो गुज़रते ही रहे हैं
मौसम ही तो हो तुम भी गुज़र जाओगे लोगो
उजड़े हैं कई शहर, तो ये शहर बसा है
ये शहर भी छोड़ा तो किधर जाओगे लोगो
हालात ने चेहरों पे बहुत ज़ुल्म किए हैं
आईना अगर देखा तो डर जाओगे लोगो
इस पर न क़दम रखना कि ये राह-ए-वफ़ा है
सरशार नहीं हो, कि गुज़र जाओगे लोगो
ग़ज़ल
सहरा ही ग़नीमत है, जो घर जाओगे लोगो
सरशार सिद्दीक़ी