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सहरा-ए-ख़याल का दिया हूँ | शाही शायरी
sahra-e-KHayal ka diya hun

ग़ज़ल

सहरा-ए-ख़याल का दिया हूँ

रज़ा हमदानी

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सहरा-ए-ख़याल का दिया हूँ
वीराना-ए-शब में जल रहा हूँ

साग़र की तरह से चूर हो कर
महफ़िल में बिखर बिखर गया हूँ

अपने ही लहू की रौशनी में
नैरंग-ए-जहाँ को देखता हूँ

वो चाँद हूँ गर्दिशों में आ कर
ख़ुद अपनी नज़र से कट गया हूँ

हर अहद है मेरे दम से रंगीन
मैं नग़मा-ए-साज़-ए-इर्तिक़ा हूँ

आईना-सिफ़त नज़र से तेरी
अक्स-ए-दर-ओ-बाम बन गया हूँ

एहसास की तल्ख़ियों में ढल कर
मैं दर्द का चाँद बन गया हूँ

सुन लो मुझे मै-कदा-परस्तो!
भीगी हुई रात की सदा हूँ

गुलज़ार में रह के भी 'रज़ा' मैं
ख़ुश्बू के लिए तरस गया हूँ