सहन को चमका गई बेलों को गीला कर गई
रात बारिश की फ़लक को और नीला कर गई
धूप है और ज़र्द फूलों के शजर हर राह पर
इक ज़िया-ए-ज़हर सब सड़कों को पीला कर गई
कुछ तो उस के अपने दिल का दर्द भी शामिल ही था
कुछ नशे की लहर भी उस को सुरीला कर गई
बैठ कर मैं लिख गया हूँ दर्द-ए-दिल का माजरा
ख़ून की इक बूँद काग़ज़ को रंगीला कर गई
ग़ज़ल
सहन को चमका गई बेलों को गीला कर गई
मुनीर नियाज़ी

