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सहन-ए-एहसास में इक नक़्श निहाँ था पहले | शाही शायरी
sahn-e-ehsas mein ek naqsh nihan tha pahle

ग़ज़ल

सहन-ए-एहसास में इक नक़्श निहाँ था पहले

नाज़ क़ादरी

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सहन-ए-एहसास में इक नक़्श निहाँ था पहले
तू नहीं था तिरे होने का गुमाँ था पहले

तह-ब-तह चार सू ख़ुश-रंग सदा रौशन थी
मुझ से पहले भी कोई जैसे यहाँ था पहले

वो भी सहरा की सदाओं में गिरफ़्तार रहा
और मुझ में भी कोई रेग-ए-रवाँ था पहले

वक़्त ने कर दिया पत्थर की लहद में तब्दील
अपना छोटा सा जो मिट्टी का मकाँ था पहले

अब तो आईना-ए-एहसास है बे-अक्स-ए-जमाल
मुझ से छुप कर भी कोई मुझ पे अयाँ था पहले

वो नहीं था तो न था उस की ज़रूरत क्या थी
अपने होने का भी एहसास कहाँ था पहले

रोज़-ओ-शब सहते रहे टूटते लम्हों का इताब
कोई ख़ंजर सा क़रीब-ए-रग-ए-जाँ था पहले

आप की हम-सफ़री ने सफ़र आसान किया
वर्ना हर गाम यहाँ कोह-ए-गिराँ था पहले

ख़ुश-बयानी ने किसी की मुझे ख़ुश-रंग किया
अपना कुछ और ही अंदाज़-ए-बयाँ था पहले

उन से मिलते ही हर इक ग़म से मिली 'नाज़' नजात
ज़िंदगी का ये हसीं चेहरा कहाँ था पहले