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सहर-ओ-शाम में तंज़ीम कहाँ होती है | शाही शायरी
sahar-o-sham mein tanzim kahan hoti hai

ग़ज़ल

सहर-ओ-शाम में तंज़ीम कहाँ होती है

सरवर अरमान

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सहर-ओ-शाम में तंज़ीम कहाँ होती है
ख़्वाहिश-ए-सुब्ह की तज्सीम कहाँ होती है

लूट ले जाता है बस चलता है जिस का जितना
रौशनी शहर में तक़्सीम कहाँ होती है

उन मोहल्लों में जहाँ हम ने गुज़ारी है हयात
मदरसे होते हैं ता'लीम कहाँ होती है

शहरयारों ने उजाड़ा हो जिसे हाथों से
फिर से आबाद वो अक़्लीम कहाँ होती है

तैरते हैं जो ग़ुलामों की झुकी आँखों में
उन सवालात की तफ़्हीम कहाँ होती है

जिस का एज़ाज़ तिरे दर की गदाई हो उसे
उम्र-भर ख़ू-ए-ज़र-ओ-सीम कहाँ होती है

हम ग़रीबों की जबीं पर किसी जाबिर के हुज़ूर
तोहमत-ए-सज्दा-ए-तस्लीम कहाँ होती है