सहर का नूर है तारों का इनइ'कास नहीं
फ़रेब-ख़ुर्दा हो तुम या ज़िया-शनास नहीं
जबीन-ए-सुब्ह पे तहरीर है ये ख़त्त-ए-जली
नए निज़ाम में तफ़रीक़-ए-आम-ओ-ख़ास नहीं
ये किस वसूक़ से अनवार-ए-सुब्ह कहते हैं
नई हयात से कोई भी वज्ह-ए-यास नहीं
ये और बात है दिल ख़ून हो गया ग़म से
नज़र में आप की अब भी कोई उदास नहीं
वो और होंगे जिन्हें ज़िंदगी के ऐश मिले
यहाँ तो एक तबस्सुम भी हम को रास नहीं
फ़रेब-ओ-किज़्ब दरिया से मैं बे-तअल्लुक़ हूँ
ब-जुज़ ख़ुलूस-ओ-वफ़ा कुछ भी मेरे पास नहीं
'सईद' दोस्त मिले हैं मुझे कुछ ऐसे भी
कि जिन को मेहर-ओ-मोहब्बत का कोई पास नहीं

ग़ज़ल
सहर का नूर है तारों का इनइ'कास नहीं
जे. पी. सईद