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सहर का हुस्न गुलों का शबाब देता हूँ | शाही शायरी
sahar ka husn gulon ka shabab deta hun

ग़ज़ल

सहर का हुस्न गुलों का शबाब देता हूँ

ख़ुर्शीद अहमद जामी

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सहर का हुस्न गुलों का शबाब देता हूँ
नई ग़ज़ल को नई आब-ओ-ताब देता हूँ

मिरे लिए हैं अंधेरों की फाँसियाँ लेकिन
तिरी सहर के लिए आफ़्ताब देता हूँ

वफ़ा की प्यार की ग़म की कहानियाँ लिख कर
सहर के हाथ में दिल की किताब देता हूँ

गुज़र रहा है जो ज़ेहन-ए-हयात से 'जामी'
शब-ए-फ़िराक़ को वो माहताब देता हूँ