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सहर जब बिस्तर-ए-राहत से वो रश्क-ए-क़मर उट्ठा | शाही शायरी
sahar jab bistar-e-rahat se wo rashk-e-qamar uTTha

ग़ज़ल

सहर जब बिस्तर-ए-राहत से वो रश्क-ए-क़मर उट्ठा

लाल कांजी मिल सबा

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सहर जब बिस्तर-ए-राहत से वो रश्क-ए-क़मर उट्ठा
ग़ुलामी उस की में ख़ुर्शीद ले तेग़-ओ-सिपर उट्ठा

अभी तस्कीं हुई थी इक ज़रा फ़रियाद-ओ-ज़ारी से
लगा दिल मुज़्तरिब होने कि फिर दर्द-ए-जिगर उट्ठा

गले पर मेरे ख़ंजर फेरता वो और भी लेकिन
हुई मुझ से ख़ता इतनी कि मैं फ़रियाद कर उट्ठा

नहीं मा'लूम ऐ यारो 'सबा' के दिल में क्या आया
अभी जो बैठे बैठे वो यकायक आह कर उट्ठा