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सहर हम ने चमन-अंदर अजब देखा कल इक दिलबर | शाही शायरी
sahar humne chaman-andar ajab dekha kal ek dilbar

ग़ज़ल

सहर हम ने चमन-अंदर अजब देखा कल इक दिलबर

नज़ीर अकबराबादी

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सहर हम ने चमन-अंदर अजब देखा कल इक दिलबर
सही क़ामत परी-पैकर मुक़त्त'अ-वज़्अ खुश-मंज़र

सुख़न-बर ग़ुंचा-लब गुल-रू जबीन-ए-महर और कमाँ-अबरू
दो चश्म-ए-शोख़ पुर-जादू निगह तीर और मिज़ा नश्तर

शमीम-ए-ज़ुल्फ़ मुश्क-अफ़्शाँ तग़ाफ़ुल सौ सितम-सामाँ
ग़ुरूर और नाज़-ए-बे-पायाँ मिज़ाज और तब्अ नाज़ुक-तर

अदाएँ सब फ़ुसूँ-आईं न छोड़ें दिल न छोड़ें दीं
फ़रेब-ओ-इश्वा सुल्ह-आगीं इताब-ओ-ग़म्ज़ा जंग-आवर

ये देखा हम ने जब आलम तो रख दिल हाथ पर हमदम
कहा हैं नज़्र करते हम जो ले लीजे तो है बेहतर

कहा ले जा तू अपना दिल कि तू क्या और तेरा दिल
न लेवें हम तो ऐसा दिल कहा जब हम ने यूँ हँस कर

यही इक दिल है बेचारा भला है या कि नाकारा
अगरचे है ये आवारा व लेकिन है वफ़ा-परवर

जो ना-मंज़ूर करते हो तो कर दो ये कब उठता है
है जब तक दम में दम उस के रहेगा ये उसी दर पर

'नज़ीर' उस ने सुना ये जब तो बोला यूँ वो शीरीं-लब
हमारा हो चुका ये अब बस इस क़िस्से को कोतह कर