सफ़ीना मौज-ए-बला के लिए इशारा था
न फिर हवा थी मुआफ़िक़ न फिर किनारा था
हम अपने जलते हुए घर को कैसे रो लेते
हमारे चारों तरफ़ एक ही नज़ारा था
ये वाक़िआ जो सुनेंगे तो लोग हँस देंगे
हमें हमारी ही परछाइयों ने मारा था
तिलिस्म तोड़ दिया इक शरीर बच्चे ने
मिरा वजूद उदासी का इस्तिआरा था
ये हौसला तो गुलों का था हँस पड़े लेकिन
उन्हें किसी का तबस्सुम भी कब गवारा था
ग़ुरूर-ए-अक़्ल में ईमान भी गँवा बैठे
ये इक जज़ीरा तो सब के लिए किनारा था
उसे भी आज किया मैं ने आँधियों के सुपुर्द
बहुत दिनों से मिरे पास इक शरारा था
हम उस को कैसे सुनाते कहानियाँ 'दानिश'
किताब-ए-दिल का हर इक सफ़्हा पारा पारा था
ग़ज़ल
सफ़ीना मौज-ए-बला के लिए इशारा था
सरफ़राज़ दानिश