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सफ़्हे पे कब चमन के हवा से ग़ुबार है | शाही शायरी
safhe pe kab chaman ke hawa se ghubar hai

ग़ज़ल

सफ़्हे पे कब चमन के हवा से ग़ुबार है

इश्क़ औरंगाबादी

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सफ़्हे पे कब चमन के हवा से ग़ुबार है
ये अपने सर पे ख़ाक उड़ाती बहार है

शबनम का कुछ नहीं गुल-ए-नर्गिस ओ पुर-असर
ये देख लो बहार की चश्म अश्क-बार है

ये शाख़-ए-गुल पे ग़ुंचा-ए-गुल से बहार का
यारो दिल-ए-गिरफ़्ता देखो आश्कार है

होता है गुल की तर्ज़ से इज़हार इस तरह
ये पारा पारा दामन-ओ-जेब-ए-बहार है

गुलशन के बीच ये गुल-ए-सद-बर्ग नीं है ज़र्द
ऐ आशिक़ो बहार का रंग-ए-अज़ार है

गुलशन के बीच कहते हैं ये जिस को लाला-ज़ार
सो नौ-बहार का जिगर दाग़-दार है

पत्थर से मार मार के सर रोती है बहार
जिस को चमन में कहते हैं ये आबशार है

ये हाल-ए-ख़स्ता देख चमन में बहार का
हसरत से मेरे दिल के उपर ख़ार ख़ार है

गुलशन की तरह से मुझ रंगीं-दिलों के बीच
है ख़ुशनुमा वो जेब कि जो तार तार है

सद-चाक गुल का सुन के हुआ जैब-ए-पैरहन
याँ तक तो पुर असर से फ़ुग़ान-ए-हज़ार है

इक बुलबुल-ए-असीर से पूछा में किस लिए
आने का फ़स्ल-ए-गुल के तुझे इंतिज़ार है

कहने लगी वो उक़्दा-ए-ख़ातिर को खोल कर
गुल गुल शगुफ़्ता हूँ मैं सुनूँ जो बहार है

आँखों से दिल के दीद को माने नहीं नफ़स
आशिक़ को ऐन-हिज्र में भी वस्ल-ए-यार है

उस शम्अ'-रू पे दिल से तसद्दुक़ है बल्कि 'इश्क़'
परवाना-वार जान से हर-दम निसार है