EN اردو
सफ़र है ख़त्म मगर बे-घरी न जाएगी | शाही शायरी
safar hai KHatm magar be-ghari na jaegi

ग़ज़ल

सफ़र है ख़त्म मगर बे-घरी न जाएगी

वली आलम शाहीन

;

सफ़र है ख़त्म मगर बे-घरी न जाएगी
हमारे घर से ये पैग़म्बरी न जाएगी

नज़र गँवा भी चुके तुझ को देखने वाले
उफ़ुक़ उफ़ुक़ तिरी जल्वा-गरी न जाएगी

मैं अपने ख़्वाब तराशूँ इन्हें बिखेरूँ भी
मिरी सरिश्त से ये आज़री न जाएगी

हसीं है शीशा-ओ-आहन का इम्तिज़ाज मगर
तिरी सियासत-ए-आहन-गरी न जाएगी

मैं सब के ज़ख़्म चुनूँ फिर उन्हें ज़बानें दूँ
बला से दिल की मिरे अबतरी न जाएगी

अगरचे सर्द बहुत है दयार-ए-क़ुतुब-ए-शुमाल
सुख़न-वरों की सुख़न-परवरी न जाएगी