सफ़र है ख़त्म मगर बे-घरी न जाएगी
हमारे घर से ये पैग़म्बरी न जाएगी
नज़र गँवा भी चुके तुझ को देखने वाले
उफ़ुक़ उफ़ुक़ तिरी जल्वा-गरी न जाएगी
मैं अपने ख़्वाब तराशूँ इन्हें बिखेरूँ भी
मिरी सरिश्त से ये आज़री न जाएगी
हसीं है शीशा-ओ-आहन का इम्तिज़ाज मगर
तिरी सियासत-ए-आहन-गरी न जाएगी
मैं सब के ज़ख़्म चुनूँ फिर उन्हें ज़बानें दूँ
बला से दिल की मिरे अबतरी न जाएगी
अगरचे सर्द बहुत है दयार-ए-क़ुतुब-ए-शुमाल
सुख़न-वरों की सुख़न-परवरी न जाएगी
ग़ज़ल
सफ़र है ख़त्म मगर बे-घरी न जाएगी
वली आलम शाहीन