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सफ़र भी कोई न हो रहगुज़र भी कोई न हो | शाही शायरी
safar bhi koi na ho rahguzar bhi koi na ho

ग़ज़ल

सफ़र भी कोई न हो रहगुज़र भी कोई न हो

असअ'द बदायुनी

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सफ़र भी कोई न हो रहगुज़र भी कोई न हो
हमारे बा'द ख़राब इस क़दर भी कोई न हो

सब उस हुजूम में गुम होना चाहते हैं जहाँ
पता-ठिकाना भी ख़ैर-ओ-ख़बर भी कोई न हो

ख़ुदा वो दिन न दिखाए कि इन दयारों में
सब आँखें रखते हूँ और दीदा-वर भी कोई न हो

ज़माना काश न आए कि फूल फल के बग़ैर
फ़क़त घरों का हो जंगल शजर भी कोई न हो

ज़मीं न बैन करे मेहरबान माँ की तरह
करो कुछ ऐसा किसी का ज़रर भी कोई न हो

फिर उस जहान में कैसे रहें कहाँ जाएँ
वतन भी कोई न हो और घर भी कोई न हो

हमें ज़मीं पे उतारा गया ज़वाल के वक़्त
यही बजा है तो फिर नौहागर भी कोई न हो